प्रतिष्ठित पत्रकार और लेखक नवीन जोशी का ‘दावानल’ के बाद यह दूसरा उपन्यास है। उत्तराखंड के शिल्पकार समाज के हालात और उससे जूझते हुए एक दलित युवक की सामाजिक–राजनीतिक चेतना के विकास एवं अंतर्द्वंद की इस कहानी को पढ़ते हुए हम पहाड़ों के जीवन को बहुत करीब से देख पाते हैं। पहाड़ के बाशिंदों की यह जीवन गाथा किसी बाहरी व्यक्ति को भले ही अविश्वसनीय लगे किन्तु पहाड़ के बाशिंदों की कई पीढ़ियों का यह मार्मिक सत्य उन्हें भीतर तक विचलित करेगा।
नवीन जोशी के इस उपन्यास में अंतश्चेतना को विचलित करती इन घटनाओं के समानांतर ही मनुष्यत्व, परस्पर प्रेम और सहज अनुराग की मोहक छवियाँ भी मौजूद हैं।
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