किताब के बारे में –
पिछले दो दशक में भारत की राजनीति पूरी तरह से बदल गई है।। प्रचार के तरीके, उसके औजार और प्रचार करने वाले सब अब वैसे नहीं रह गए जैसे कि वे पहले कभी हुआ करते थे। ‘चुनाव के छल-प्रपंच – मतदाताओं की सोच बदलने का कारोबार’ इसी बदलाव की पड़ताल करती है। परत दर परत और साल दर साल वह यह समझने की कोशिश करती है कि कभी चुनाव प्रचार का जो काम पूरी तरह राजनीतिज्ञों और कार्यकर्ताओं की सक्रियता पर निर्भर करता था अब कैसे एक बड़ा उद्योग बन चुका है।
इस दौरान हमारे बीच एक ऐसी तकनीक ने भी पांव पसार लिए हैं जो संवाद और संपर्क का सबसे बड़ा जरिया बन चुकी है। मोबाइल, मैसेंजर और इंटरनेट वाले युग में पोस्टर और लाउडस्पीकर वाले समय की न तो रणनीति ही चल सकती है और न ही उस समय के तौर-तरीके।
इसी तकनीक के जरिये दुनिया ने सोशल मीडिया जैसी जो चीजें हमारे दैनिक जीवन में परोसी हैं अब वे राजनीतिक विमर्श को आकार देने का सबसे बड़ा आधार बन चुकी हैं। ठीक इसी जगह हमारी मुलाकात फेक न्यूज़ से होती है जो मतदाताओं को भरमाने और छलावे में रखने का सबसे बड़ा जरिया हैं। पहले जो काम पार्टी कार्यकर्ता अफवाहों के जरिये जमीनी स्तर पर करते दिखाई देते थे, अब उसकी जगह फेक न्यूज़ के कारखाने लग चुके हैं जिनकी उत्पादन क्षमता ने झूठ बोलने के सारे पुराने रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं।
यह सारा उद्योग लगातार फल-फूल रहा है जो चुनाव सामने न भी हों तब भी सक्रिय रहता है। ‘चुनाव के छल-प्रपंच’ में सिर्फ इस कारोबार की पड़ताल ही नहीं आगे की आशंकाओं का भी पूरा ब्योरा है।
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