किताब के बारे में :
कुबेर दत्त में कविता-कर्म की गहरी समझ थी। उनके लेखन में भी वही खुलापन था जो उनकी शख्सियत में। उनकी बेचैनी कला को जीवन से जोड़ने की थी कि- ” भाषाएँ होंगी असंख्य, पढ़ जिसे सकेंगे अनपढ़ भी।” कवि-मीडियाकर्मी होने के साथ साथ ही वे बेहतरीन गद्य-लेखक और चित्रकार भी थे। साहित्यिक- सांस्कृतिक कर्म के प्रति एक दुर्लभ किस्म की संवेदनशीलता उनके भीतर थी। ‘बचा हुआ नमक लेकर‘ नामक यह संग्रह उनकी 1987 से 2011 यानी लगभग ढाई दशक के दौरान लिखी गई असंकलित और अप्रकाशित कविताओं का संकलन है। इसमें गीत, ग़ज़ल एवं मुक्त छंद की लंबी और कई छोटी कविताएँ हैं जिनमें भक्ति आंदोलन से लेकर प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन की काव्य परंपरा की स्पष्ट अनुगूँज है।
अपनी कविता को कुबेर दत्त जहाँ जनता की आवाज़ बनाना चाहते हैं वहीं आर्थिक उदारीकरण, सूचना साम्राज्य और आक्रामक उपभोक्तावाद के दौर में बढ़ती हिंसा, स्वार्थपरता, धार्मिक पाखण्ड, साम्प्रदायिक कट्टरता, उन्माद, लूट, दमन, राजनैतिक अवसरवाद, समझौतापरस्ती, आम इंसान के जीवन की बढ़ती मुश्किलों और प्रतिरोध की बेचैनी के यथार्थ को उसमें दर्ज करते हैं। परिजन, साथी रचनाकार, कलाकार, प्रकृति, शहर, कस्बा, गांव, समुद्र तट अर्थात सम्पूर्ण जीवन जगत के प्रति इन कविताओं में एक विरल संवेदना मौजूद है।
सिर्फ़ अपने देश ही नहीं, पूरी दुनिया के पीड़ितों के प्रति उनमें गहरी संवेदना थी। सत्ता के दलालों, स्वार्थी महत्वाकांक्षी टटपूँजियों के लिए अपनी रचनाओं में वे तीखा व्यंग्य करते हैं। उनकी ग़ज़लें भी इस विधा के लिए आवश्यक व्याकरण और शिल्प के पैमाने पर खरी उतरती हैं।
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