बाबा साहब अंबेडकर की उपेक्षा उनके समय में भी होती रही और आज भी उनके विचारों को उपेक्षित कर भावनात्मक प्रतीक के रूप में उनका अधिक प्रयोग किया जा रहा है।
यह पुस्तक बाबा साहब के ग्रंथों का सिलसिलेवार ढंग से मूल्यांकन और बातचीत का एक पड़ाव है। साथ ही यह सामाजिक असाम्यता को उत्पन्न करने वाली व्यवस्था की पहचान भी सुनिश्चित करती है। आज डॉ अंबेडकर के विचारों को स्वीकार करने और उन्हें समग्रता से समझने की आवश्यकता है। अब परंपरागत सत्ता संरचना टूटी है। गैर दलित समाज को विवश होकर दलित समाज की तरफ ध्यान देना पड़ रहा है। यह किताब भागीदारी के सवालों पर सोचने का रास्ता देती है। यही डॉ अंबेडकर के चिंतन के मूल में था। यह देश मात्र बहुसंख्यक लोगों का ही नहीं है। संपादक रामायन राम ने इस किताब में इन बिंदुओं पर व्यवस्थित चर्चा की है।
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